Friday, June 12, 2009

क्या छत्तीसगढिय़ावाद मुद्दा बनेगा

महाराष्ट्र में मराठा क्षत्रपों द्वारा क्षेत्रवाद को लेकर जिस तरह की गतिविधियां चल रही है और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे को जो लोकप्रियता मीडिया प्रदान कर रहा है उससे छत्तीसगढिय़ावाद को लेकर खुसुर-फुसुर शुरू हो गई है। आपसी बातचीत में ये मुद्दा चर्चा का विषय है कि इस पिछड़े राज्य में बीती कुछ शताब्दियों से रह रहे पिछड़े साहू, कुर्मी और दलित सतनामियों का शोषण गत् पचास साल में आए आगड़े लोग कर रहे है। आर्थिक शोषण के अलावा अन्य मुद्दों को लेकर भी इन वर्गों पर ताना कसा जाता है। यहां यह बताना लाजमी होगा कि छत्तीसगढ़ के पिछड़े - दलितों की तासीर सद्भाव की है और यहां के लोग बेहद धैर्यवान और सहनशील होते है। सीधे-सरल छत्तीसगढिय़ों द्वारा तानों का जवाब नहीं दिए जाने से भी अगड़े वर्ग के कुछ लोगों द्वारा सामंतशाही तौर तरीकों के इस्तेमाल से जहां मानवीय होने पर सवाल खड़ा होने लगा है वहीं स्वाभिमान की भावना में भी उबाल आने लगा है। इस चिंगारी को पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र की ज्वाला ने धीरे-धीरे सुलगाने का काम शुरू कर दिया है। इसी परिपेक्ष्य में प्रश्न यह भी उठाया जा रहा है कि क्यों नहीं छत्तीसगढिय़ा और परदेशिया के मुद्दे को हवा दी जाए? हाल ही में समपन्न हुए लोकसभा चुनाव में दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी से बर्खास्त पूर्व सांसद तारा चंद साहू ने इस मुद्दे के आधार पर चुनाव लड़ा उन्हें अब तक किसी भी निर्दलीय को मिले वोटों के आधार पर सर्वाधिक दो लाख बासठ हजार मत मिले जो कि रिकार्ड है। इससे यह मुद्दा फिर से चर्चा में है।छत्तीसगढ़ को आदिवासियों का गढ़ भी कहा जाता है। यहां कुल आबादी में लगभग आधी जनसंख्या वनों में रहने वाले वनवासियों की है। इन आदिवासियों के शोषण का भी आरोप तथाकथित अगड़े और कुछ सालों से राज्य में आए जैन, अग्रवाल, मारवाडिय़ों पर लगता रहा है। आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से दोयम दर्जे पर रह रहे छत्तीसगढिय़ों को न तो रोजगार में कोई सुविधा मिलती है और ना ही राजनीति में उन्हें विशेष महात्व मिलता है। सरकार की योजनाओं से भी आदिवासी-साहू-सतनामी और कुर्मी समुदाय के लोगों का कल्याण नहीं हो सका है। करीब अस्सी फीसदी इस आबादी को मात्र बीस प्रतिशत अगड़ों के वर्चस्व का सामना हर स्तर पर करना पड़ता है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पीछे एक वजह यह भी थी कि इस अंचल के पिछड़े-आदिवासी वर्ग का विकास नहीं हो रहा था। इन वर्गों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए ही कांग्रेस के नेता स्वर्गीय चंदूलाल चंद्राकर तमाम विरोधियों के बाद भी अलग राज्य के पक्षधर बने रहे। तब अंचल की राजनीति में दबदबा रखने वाले स्व. श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल राज्य पुर्नगठन आयोग की बात कहते रहे। राज्य बनने के साथ ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री अजीत जोगी को अपनी ही पार्टी के नेताओं का मुखर विरोध सहना पड़ा लेकिन उन्होंने छत्तीसगढिय़ावाद का भरपूर पोषण कर तब उस मुद्दे को संभाल लिया। छत्तीसगढ़ी में भाषण की उनकी अनूठी शैली और पिछड़ों को राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए लामबंदी के प्रयास से श्री जोगी ने छत्तीसगढिय़ा स्वाभिमान की रक्षा की और अस्मिता को नयी पहचान दी। लेकिन दुर्भाग्यजनक परिस्थितियों ने इस मॉस लीडर को अपना शिकार बना लिया और वे राजनीति में उनके दामन में कई दाग लगा लिए। भारतीय जनता पार्टी की सरकार प्रदेश में सत्तारुढ़ होने के बाद छत्तीसगढिय़ावाद की पूरा हवा निकाल गई और आदिवासी और पिछड़े वर्ग के सभी बड़े नाते हाशिए पर चले गए। बीजेपी की राजनीति में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने संगठन का साथ लेकर आदिवासी वर्ग के नंदकुमार साय, शिवप्रताप सिंह, रामविचार नेताम और ननकीराम कंवर की महत्वकांक्षाओं को और पिछड़े वर्ग के रमेश बैस, ताराचंद साहू और चंद्रशेखर साहू की अपेक्षाओं पर नकेल कसकर स्थनीय और बाहरी के मुद्दे पर पानी फेर दिया। लेकिन भाजपा को इस बात का पूरा अहसास था कि चुनाव में बनिया-जैनों को तवज्जों दी गई तो छत्तीसगढ़ी लोग तरजीह नहीं देंगे सो सन् 2009 के विधानसभा चुनाव में बड़ी संख्या में नए पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को मैदान में उतारकर सामाजिक समीकरण के अनुरूप जीतने की रणनीति बनाई। प्रथम पंक्ति के स्थान पर दूसरी पंक्ति के स्थान पर दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाने की नीति बीजेपी में हमेशा सफल रही है और इसी वजह से संगठन मजबूत रहा है।बहरहाल छत्तीसगढिय़ा और परदेशिया वाद का मुद्दा हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा और लोक सभा चुनाव में धीरे-धीरे सुलगा। पर इसे प्रज्वलित करने के लिए राज ठाकरे जैसे व्यक्तित्व की जरूरत है। बीजेपी से बर्खास्त पूर्व सांसद ताराचंद साहू कांग्रेस नेता भूपेश बघेल, संत पवन दीवान, सांसद बलिराम कश्यप में ये ताब है कि वे छत्तीसगढ़ी अस्मिता के लिए संघर्ष कर नेतृत्व संभाल सकते थे इसमें बलीराम कश्यप बीमार हो गए तो पवन दीवान की इच्छाशक्ति खत्म हो गई है। मात्र भूपेश बघेल और ताराचंद साहू ही में कुछ शक्ति बची हुई है कि इस मुहिम के अगवा बन सके। इस मुद्दे के नेतृत्वकर्ता की तलाश में समय जुटा है। अब कौन इसकी मशाल को थामता है उसकी प्रतीक्षा है?

1 comment:

  1. छत्तीसगढ मे निवास करने वाले किन लोगों को आप छत्तीसगढी मूल के मानते है? मूल निवासी होने के लिये कितनी पीढीयों से निवास करना ज़रूरी है? सबसे पहले जिस प्रजाति का यहाँ आगमन हुआ वे लोग कौन थे ? क्या उनके वंशज ही मूल छत्तेसगढी है?छत्तेसगढी होने के लिये भाशाई आवश्यकतायें क्या होनी चाहिये? क्या छत्तीसगढी का कोई मानक स्वरूप है? बस्तर की संस्कृति और बोली की क्या भूमिका है?भोंसले शासन के बाद मराठी भाषी लोगों की छत्तेसगढ मे उल्लेखनीय भूमिका रही है उनके योगदान के विषय मे छत्तीसगढ मे क्या धारणाये है?
    शोषण करने वाले क्या सारे के सारे गैर छत्तेसगढी है? शोषित होने वाला आम आदमी तो सब ओर से मारा जाता है?उसकी सुरक्षा कौन करेगा?क्या आन्दोलन और हिंसा से शोषण होना बन्द हो जायेगा?क्या अपने ही लोग फिर शोषण नही करेंगे इस बात की क्या गारंटी है?राज्य तो बिना किसी आन्दोलन के मिल गया यह तो उससे भी कठिन काम है क्योकि सही राज्नैतिक समझ के बिन इसका क्रियांवयन अराजकता को जन्म देगा?
    जो भी छत्तीसगढ का पालनहार बनने के बारे में सोचे पहले आम छत्तीसगढिया की इन शंकाओं का समाधान करे.

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