Wednesday, June 17, 2009

संगठन विहीन कांग्रेस का कैसे होगा कल्याण ?

(दैनिक छत्तीसगढ़ वॉच 15 जून 2009 को प्रकाशित)

कभी कांग्रेस नेताओं की ये सोच थी कि कांग्रेस को वोट देना जनता की मजबूरी है क्योंकि कांग्रेस के अलावा कोई भी पार्टी स्थिर सरकार नहीं दे सकती। विपक्षी दलों के लिए भी बड़ी चुनौती थी कि उनके दल की सरकार पूरे पांच साल तक नहीं चल पाती है। लेकिन ये मिथक टूटा बल्कि यह भी साबित हुआ कि लोग सरकारें बदलने की जगह पुरानी सरकार को चुनने से भी नहीं हिचकते। केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी ने 24 दलों की खिचड़ी सरकार को पांच साल तक चलाकर भ्रम तोड़ा तो गुजरात मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में यह आशंकाएं निर्मूल हो गई कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में दुबारा नहीं आती। अब वो समय भी नहीं रहा है कि केंद्र में विरोधी दल की सरकार प्रदेशों में राजपाट बदल दें या सरकार को भंग कर दे लोग जागरूक हुए है तो पार्टियों का आधार भी मजबूत हुआ है। सो,अब कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार के करिश्माई नेतृत्व के अलावा संगठन को मजबूत कर अपना अस्तित्व बचाने के साथ ही खोई हुई प्रतिष्ठा की जुगत में है। हाल ही में लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस में युवा नेतृत्व के चलते जर्बदस्त फायदा हुआ है और पार्टी जिन राज्यों में संगठन को मजबूत कर रही है उसे लाभ भी मिल रहा है। इधर, इसके विपरीत छत्तीसगढ़ में कांग्रेस लगातार रसातल की ओर अग्रसर है। संगठन यहां नाममात्र को है। गुटबाजी पर कोई लगाम नहीं है। सबसे बड़ी बात ये है कि केंद्रीय स्तर पर प्रदेश के चारो अलग-अलग गुट की पहुंच है जिसके चलते एक गुट के हाथों में कमान नहीं आ पा रही है । पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की बीमारी के दौरान राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा गुट को अवसर मिला था कि वे संगठन में अपनी जड़े मजबूत करने के साथ ही जनता के बीच में अपनी प्रभावी स्थिति बना सकते थे लेकिन इस गुट के नेताओं में जमीनी राजनीति की जगह एयरकंडीशन रूम में समय व्यतीत कर दिया। अब श्री जोगी वापस आ गए ये उनकी तानाशाही और वर्चस्व की अफवाहों से अपनी गद्दी सलामत रखना चाहते हैं। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी का पिछले पांच साल से गठन नहीं हो सका है। वर्तमान में जो कमेटी कार्य कर रही है वह पुरानी है और उसके पुनर्गठन की कवायद कई बार की जा चुकी है लेकिन कांग्र्रेस तो कांग्रेस है सो हर बार मनोनीत अध्यक्षों को नई दिल्ली से मायूस होकर लौटना पड़ता है। सन् 2008 के विधानसभा और हाल ही में 2009 लोकसभा चुनाव में पार्टी की बुरीगत होने के बाद फिर से प्रदेश अध्यक्ष के मनोनयन की उठापटक की खबरें हंै। अध्यक्ष और दो कार्यकारी अध्यक्षों के फार्मूले के बाद भी पार्टी में बाकी पदों पर मोतीलाल वोरा गुट का ही वर्चस्व है और अजीत जोगी, विद्याचरण शुक्ल और महेंद्र कर्मा- भूपेश बघेल गुट के नेता हाशिए पर है।यहां यह बताना लाजमी होगा कि प्रदेश में चार अलग-अलग गुट हैं। पहला गुट मोतीलाल वोरा का है। स्वयं श्री वोरा भले ही छत्तीसगढ़ की राजनीति में ज्यादा रूचि नहीं लेते हो पर केंद्र में पार्टी के कोषाध्यक्ष है सो उनका पॉवर जर्बदस्त है। दूसरा गुट पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का है। मुख्यमंत्रित्व काल में उनका गुट बना और ये उस दौरान शक्तिशाली था। तीसरा गुट विद्याचरण शुक्ल का है। कभी श्री शुक्ल का जलवा हुआ करता था और अंचल में शुक्ल बंधुओं का दबदबा था जिसे पहले अर्जुन सिंह ने बाद में दिग्विजय सिंह ने तोड़ा। मोतीलाल वोरा छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ ही पॉवरफुल हुए जब वे राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष बनाए गए। और चौथा गुट पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा और पूर्व उपनेता प्रतिपक्ष भूपेश बघेल का है जो अजीत जोगी की बीमारी के दौरान बना।दरअसल गुटों में बटी कांग्रेस के लिए सन् 2004 से लेकर 2007 तक का समय संगठन के लिहाज और जोगी विरोधी नेताओं के लिए स्वार्णिम अवसर का समय था क्योंकि उस दौरान श्री जोगी बिस्तर पर थे तो विद्याचरण शुक्ल पार्टी छोड़कर चले गए थे। ऐसे समय में वोरा गुट के नेताओं के कब्जे में कांग्रेस थी और ये लोग चाहते तो अपने कार्यो से अलग छवि बना सकते थे। श्री वोरा सन् 2004 में कुछ समय के लिए अध्यक्ष बने लेकिन उनके पास वक्त कहां था ? फिर दिग्विजय सिंह के करीबी डा. चरणदास महंत अध्यक्ष बनाए गए। लेकिन श्री महंत भी महेन्द्र कर्मा और भूपेश बघेल की तरह बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से सौहार्द्र संबंध कायम कर संगठन को भुला बैठै। वे अपनी कार्यकारिणी तक नहीं बना सकें। डा. रमन सिंह से संबंधों के आरोप ने उन्हे पदावनत कर कार्यकारी अध्यक्ष बनवा दिया लेकिन इसी संबंध के चलते वे कोरबा से चुनाव भी जीत गए। विधानसभा चुनाव से पूर्व रायपुर जिला अध्यक्ष धनेंद्र साहू का जोरदार प्रमोशन प्रदेश अध्यक्ष के रूप में हुआ लेकिन वे न तो कार्यकारिणी बना पाए और ना ही विधानसभा चुनाव में पार्टी को जितवा पाए। बल्कि स्वयं भी हार गए। लब्बोलुआब ये है कि कांग्रेस को अब अपनी गलतियां सुधारनी होगी। सत्ता के लोभ में जो अराजक तत्वों की घुसपैठ हो गई है उन वापरसों को साफ करना होगा और संगठन में चुनाव की परपंरा शुरू करनी होगी। दो-चार असमाजिक तत्वों के हुडदंग से घबराने वालें खाक राजनीति करेगें ! सो ऐसे कायरों की पार्टी में क्या जरूरत है। आवश्यकता है कांग्रेस संगठन को मजबूत किया जाए और ये वक्त की मांग भी है।

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